Rajessh M Iyer
उनके शब्दों ने सब को अचंभित कर दिया। क्या यह वही सम्राट है जिन्होने एक कमांडर के रूप में फ्रांस को असंख्य युद्धों में विजय दिलाई थी? वह सम्राट जो युद्ध जीतने के लिए अपनी ताकत, कौशल और कूटनीति के लिए जाने जाते थे? आख़िर नेपोलियन ने ये अजीब वक्तव्य क्यों दिया?
सम्राट नेपोलियन के साथ सेना के सर्वोच्च कमांडर प्रमुख पदों पर सम्मानित और पदोन्नत किए जाने वाले जनरलों की सूची पर विचार कर रहे थे। कमांडरों द्वारा एक विशेष नाम की सिफारिश सुनने पर, नेपोलियन ने पूछा, 'मुझे पता है कि वह एक सक्षम जनरल है, लेकिन क्या वह भाग्यशाली है? मैं अच्छे जनरल के बजाय ऐसे जनरल को रखना पसंद करूंगा जो भाग्यशाली हो।'
सभी कमांडर चकित थे कि एक युद्ध का अनुभवी इस तरह से कैसे बात कर सकता है। वह भी नेपोलियन? उनकी दुविधा को समझते हुए नेपोलियन ने कहा, 'मैंने युद्ध के मैदान में बेहद कठिन परिस्थितियों के दौरान बेहतरीन जनरलों को योजना बनाते और सटीकता से क्रियान्वित करते हुए करीब से देखा है। आप में से प्रत्येक उस श्रेणी के योद्धा हैं जो युद्ध के हर एक पहलू को अच्छी तरह से समझते हैं। हालांकि, आप इस बात को नहीं नकारेंगे की ऐसी परिस्थितियाँ प्रकट होती हैं युद्ध में जहाँ एक त्रुटिरहित योजना भी विफल हो जाती है। ऐसे संकट में हमारी सहायता कौन करता है? आम जनता इसका श्रेय दैवीय शक्ति को देती है, जबकि कुछ इसे नियति और कुछ इसे भाग्य कहते हैं। तलवारों, बंदूकों और संगीनों की नोक पर अपना जीवन जीने के बाद, आप सब इस बात का उपहास कर सकते हैं, लेकिन यह कुछ ऐसा है जिसे मैं सिरे से नकार नहीं सकता। उन सभी जीतों के बावजूद, जिनका श्रेय मुझे दिया जाता है, मैं महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले भाग्य को नजरअंदाज नहीं कर सकता।’
इतिहासकारों ने इस घटना को मान्यता नहीं प्रदान की है, और कुछ लोग इस बयान को 17वीं शताब्दी में फ्रांस के मुख्यमंत्री कार्डिनल माज़रीन का बताते हैं। जो भी हो, ऐसी घटनाओं के घटित होने की संभावनाओं से नेपोलियन इनकार नहीं कर सकते। ऐसे कई उदाहरण हैं जब उन्होंने अपनी उपलब्धियों में भाग्य का हवाला दिया, यहां तक कि उन्होंने अपनी प्रेमिका जोसेफिन को अपना लकी चार्म भी माना है।
आइए समझें कि आधुनिक इतिहास के सबसे महान कमांडरों में से एक जब यह घोषणा करते हैं तो उनका सबब क्या है। जब हम अपनी उपलब्धियों का श्रेय लेते हैं, तो हमें इस तथ्य को स्वीकारना ही होगा कि भाग्य या दैवीय हाथ निश्चित रूप से उन उपलब्धियों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शायद नेपोलियन इसी ओर इशारा कर रहे हैं!
बेचैनी ऐसी कि मानो वह राजन का दूसरा नाम ही हो, हालांकि वह अक्सर इस बेचैनी को ही एक कॉर्पोरेट प्रमुख के रूप में अपनी अपार सफलता का श्रेय देता था। आख़िर, चालीस साल की उम्र होने से पहले उसने अपना व्यापारिक साम्राज्य दूर-दूर तक फैला लिया था, जिसका कारोबार अरबों में था। हालांकि, जहां वह बेचैनी उसकी भौतिक सफलता का कारण थी, वहीं यह भीतर कचोटती भी थी।
इस बेचैनी के समाधान के लिए उसने जिन आध्यात्मिक केंद्रों का रुख किया, वे केवल शब्दों से भरे हुए थे, जिनमें 'निर्वाण' और 'मोक्ष' बार-बार दोहराए जाते थे। उसे भी वह 'हासिल' करना था, जैसे उसने जीवन में बाकी सब कुछ किया था। लेकिन मन की शांति कोसो दूर थी। तभी उसने पहाड़ों के बीच एक मठ के बारे में सुना। उसका मन कहता था कि हो न हो यही वह स्थान है जिसे वह इतने वर्षों से खोज रहा था। वहां उसे क्या मिलेगा, उसका उसे अंदाज़ा न था।
पहला झटका तब लगा जब उसने पाया कि वह मठ किसी रमणीय पर्वत पर नहीं बल्कि पहाड़ों के पास बसे एक छोटे शहर के ठीक बीचों-बीच था। इससे भी बुरी बात यह थी कि वो शहर का वह हिस्सा था, जो दलालों, नशीले पदार्थ बेचने वालों, भ्रष्ट पुलिसकर्मियों और चोरों से भरा था। राजन को ये सब देखकर ही घिन्न हो गई। मठ के गुरु ने राजन की परेशानी समझ उससे कहा कि भले ही वह ज्यादा दिन न रुके, पर कुछ दिन तो ठहरकर देखें। अनिच्छा से, वह सहमत हो गया।
हालाँकि, जैसे-जैसे दिन बीतते गए, भीतर कुछ गहरा बदलाव आने लगा। जहां पहले दिन चारों ओर के शोर ने राजन को बेचैन कर रखा था, दूसरे दिन परेशानी भले ही हुई, लेकिन वह विचलित नहीं हुआ। तीसरे दिन तक राजन को एहसास हुआ कि हो-हल्ला के बावजूद वह शांत बैठ सकता है। उसने अपने प्रवास को बढ़ाने का फैसला किया क्योंकि वह अपने अंदर बदलाव महसूस कर रहा था। गुरु ने उसे चिढ़ाते हुए पूछा, 'आपने अपना वापसी का टिकट बुक किया कि नहीं?’
कुछ दिनों पश्चात, परिवर्तन से आश्चर्यचकित हो राजन ने पूछा कि आख़िर क्या जादू हुआ उसपर। गुरु ने उत्तर दिया, 'कोई जादू नहीं है। आपने बस अपनी दृष्टि बहार से अंदर की ओर मोड़ ली और देखा कि अंदरुनी कोलाहल का अपना एक स्वरूप है। और उसपर आपने काम शुरू कर दिया। जो बातें आपके मन में लगातार गूंजती है, वही कोलाहल का कारण है, न कि बाहर से आने वाली आवाज़ें। बाहर के बाजार से ज़्यादा शोर आपके मन के अंदर है। इससे कोई भाग नहीं सकता। याद रखें कि यदि आप भरे बाजार में शांत नहीं रह सकते, तो आपको कहीं भी शांति नहीं मिल सकती।’
आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्यों को जीवन के गहरे अर्थ समझाने के अनोखे तरीके अपनाते हैं। ऐसा ही एक वाक़या है जब रामकृष्ण ने उनके शिष्यों से अपने घरों से एक मुट्ठी चावल चुराने के लिए कहा। एक शर्त थी कि उन्हें यह कृत्य करते हुए कोई न देखे। रामकृष्ण ने उनसे अगले सप्ताह चावल लाने को कहा।
अगले सप्ताह शिष्यों में जबरदस्त उत्साह था। एक के बाद एक शिष्य ने अपनी कामयाबी का बखान करते हुए चावल जमा किया। रामकृष्ण ने उन सभी को मुस्कुराते हुए सुना। उनका एक शिष्य नरेंद्रनाथ—जिसे नरेंद्र या नरेन के नाम से भी जाना जाता था—कोने में शांत खड़ा था। रामकृष्ण ने नरेन से पूछा कि वह चावल क्यों नहीं लाया।
'मुझे उपयुक्त समय नहीं मिला जब कोई देख नहीं रहा हो,' नरेन के उत्तर से सभी चकित हुए।
रामकृष्ण ने कहा, 'पूरा सप्ताह था तुम्हारे पास। निश्चित ही ऐसा कोई समय रहा होगा जब रसोई में कोई नहीं हो, विशेषकर रात के समय?'
'मैं अजीब से असमंजस में पड़ गया हूं। जानना चाहता हूं कि दूसरे इस स्थिति से कैसे निपटे,’ नरेन ने उत्तर दिया।
‘कैसी असमंजस?' रामकृष्ण ने पूछा।
नरेन ने समझाया, 'आपने कहा था चावल चुराते समय कोई न देख रहा हो। मैं अपने परिवार के सदस्यों के देखे बगैर तो ऐसा कर सकता था। लेकिन, मुझे एक भी पल ऐसा नहीं मिला जब मैं खुद को नहीं देख रहा हूँ। यहां तक कि जब अन्य लोग दूर होते हैं, तब भी मैं वहां मौजूद रहता हूं, मेरी हर गतिविधि पर नजर रखे हुए। मैं उस चौकीदार की तरह हूं जो केवल मौजूद ही नहीं, सदैव सचेत भी रहता है, जो मुझे अकेला छोड़ने को तैयार ही नही। फिर मैं चावल कैसे चुरा सकता हूँ क्योंकि कोई हो न हो, मैं खुद को तो निश्चित रूप से देख रहा होता हूँ?'
रामकृष्ण ने नरेन को अपने पास बुलाकर गले से लगा लिया। यह नरेन विश्व भर में विवेकानंद के नाम से जाने गए।
काश हम इस मूलभूत सत्य को याद रखें कि जब दूसरे हमें नहीं देख रहे होते, तब भी हमारी खुद पर नजर रहती है। हमारे अंदर का चौकीदार सदैव मौजूद रहता है। इसलिए हर कदम सोचकर उठाएं और हर कार्य पूरी सावधानी से करें।
मुल्ला नसरुद्दीन ने बेटे की ओर देखा और महसूस किया कि बेटे को आश्वस्त करने के लिए उसे अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन देना ही होगा। उसने अपने कौशल के बारे में बेटे से कई बार बखान किया था, लेकिन बेटा हमेशा उदासीन सा ही दिखाई दिया। नसरुद्दीन को आज तक समझ नहीं आया कि यह अरुचि है या अविश्वास। उस दिन, उसने फैसला किया कि बेटे के लिए उसकी महानता का प्रत्यक्ष अनुभव लेने का समय आ गया है।
कंधे पर बंदूक लटकाए और बेटे को अपने प्रिय गधे पर बिठाकर, मुल्ला पास के खेतों की तरफ चल पड़ा। हालांकि, किसी ने भी उसे आज तक गोली चलाते देखा नहीं था, लेकिन यह तथ्य कि उसके पास एक बंदूक थी, उसका रुतबा बढ़ाने के लिए काफी था।
खेतों के कोने पर खुद को तैनात करते हुए, नसरुद्दीन ने अपने बेटे से उसे ध्यान से देखने के लिए कहा। लेकिन बेटा अभी भी बेपरवाह ही दिख रहा था। नसरुद्दीन ने खुद को आश्वासन दिया कि जब वह अपने पिता का कौशल देखेगा, तब जाकर मानेगा।
तभी बाईं ओर से एक बाज़ उड़कर आया और हवे में करतब करने लगा, मानो नसरुद्दीन को उकसा रहा हो। बाज़ इतना बड़ा था कि चूकना लगभग नामुमकिन था। अपने बेटे को ध्यान से देखने के लिए कहते हुए, उसने बाज़ पर निशाना साधा। और फिर गोली चलाई। फिर एक दंभ-भरी मुस्कान के साथ बेटे को देखा।
बेटे के चेहरे पर कोई भाव न देखकर नसरुद्दीन ने आसमान में नज़र डाली। वहाँ बाज़ अभी भी मस्ती से आकाश में उड़ रहा था। ऐसा लग रहा था मानो वह बाज़ उसकी खिल्ली उड़ा रहा हो। लेकिन बाज़ के ना मरने की चिंता नसरुद्दीन को नहीं सता रही थी बल्कि यह कि उसका बेटा क्या सोच रहा होगा। उसने मुड़कर देखा तो बेटा उसे घूर रहा था। नसरुद्दीन भी मंझा हुआ खिलाडी था। निराश होने के बजाय, नसरुद्दीन ने अपने बेटे से बनावटी आत्मविश्वास भरी आवाज़ में कहा, 'ध्यान से देख। क्योंकि हम दो ही हैं जिन्होंने मरे हुए पक्षी को उड़ते हुए देखा है।’
हम इस वाकये को चुटकुला समझकर हंस सकते हैं, लेकिन नसरुद्दीन अकेला नहीं हैं। यह नाटक हम प्रतिदिन करते हैं। अपनी गलतियों को स्वीकार करे बगैर और अपनी असफलताओं को सही ठहराते हुए दिखावा करते हैं कि सब कुछ वैसा ही है जैसा हमने कहा था। नसरुद्दीन ने जो नहीं देखा वह थी अपने बेटे के चेहरे पर हलकी-सी मुस्कान। बेटा जानता था। इससे पहले कि हम अपनी गलतियों और कमियों पर पर्दा डालने की कोशिश करें, जान लें कि दुनिया वास्तविकता से अवगत है।
युवक ने नदी को असमंजस की दृष्टि से देखा। निर्मल नदी के बदले उसे एक विकराल समस्या दिखाई दी क्योंकि उसका इरादा दूसरी तरफ जाने का था और आसपास कोई भी नहीं था और न ही कोई नाव थी जो उसे पार करा सके।
क्या मुझे तैरना होगा, उसने सोचा। तैराकी में उसकी सीमित योग्यता बहुत मदद करेगी ऐसी उसे उम्मीद नहीं थी। धूमिल संभावना से निराश होकर वह नदी के किनारे बैठ गया और किसी राहगीर या नाव के आने की प्रतीक्षा करने लगा।
लगभग एक घंटे तक कुछ खास नहीं बदला। जब वह हताश हो रहा था तो उसने दूसरी ओर एक साधु को देखा। वह बहुत उत्साहित हुआ। एक तो उसे कोई इंसान नजर आया। दूसरा, साधु की शांत आभा से ये प्रतीत होता था जो कि वे एक अनुभवी आध्यात्मिक साधक हैं। युवा ने सोचा कि उसकी समस्या का समाधान उनके पास अवश्य होगा।
साधु की ओर हाथ हिलाने पर दूसरी ओर से भी वैसी ही प्रतिक्रिया मिली। इससे युवक और प्रसन्न हुआ। वह मुस्कुराया और उसने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़े। फिर उसने उनसे पूछा: 'क्या आप मुझे बता सकते हैं कि मैं दूसरी तरफ कैसे पहुंच सकता हूं।’
'तुम दूसरी तरफ ही तो हो, बेटा,' साधु ने कहा। उत्तर ने युवक को चौंका दिया, जैसा कि निश्चित रूप से आप हुए होंगे। हालांकि, इस अटपटे, बेतुका मज़ाक लगने वाले उत्तर में जीवन का एक अद्भुत सत्य छिपा है।
इस विरोधाभास प्रतीत होने वाले जीवन सत्य की दो व्याख्याएँ संभव है। आध्यात्मिक खोज पर हम अभी भी 'दूसरी तरफ' खड़े हैं। हम जिस ओर हैं वह ‘दूसरा' है और हमें पार जाना है। दूसरा पहलू है कि कोई दूसरा छोर है ही नहीं—कहीं भी जाने की चेष्टा मात्र भी व्यर्थ है। हम जहां खड़े हैं वहीं हमें होना चाहिए। बस एहसास होना आवश्यक है क्योंकि सत्य जानना ही दूसरी ओर पहुँचना है। सच कहें तो, दूसरे छोर की अवधारणा एक मिथ्या है जो हमारे मन ने बुन रखा है। आवश्यक है सत्य से अवगत होना, यहीं… इस क्षण!
राजा बिम्बिसार जब भी संभव हो बुद्ध के विहार जाना पसंद करते थे क्योंकि आध्यात्मिक चर्चाओं के लिए उन्हें अपने महल की तुलना में यह एक बेहतर जगह लगती थी। विहार की शांति अपराजेय थी। इसके अलावा, बिम्बिसार को इस बात का एहसास था कि धन और ऐश्वर्य आध्यात्मिक खोज में बाधा बन सकते हैं।
कभी-कभार होने वाली मुलाकातें राजा को सदैव आनंदित करती थी, जैसा कि उस दिन हुआ। लेकिन बुद्ध के शिष्यों को देखकर राजा अक्सर आश्चर्यचकित होते थे कि बगैर किसी संपत्ति अथवा धन के वे इतने शांत और संतुष्ट कैसे लगते हैं। तभी बिम्बिसार को याद आया कि बुद्ध ने एक बार उनसे कहा था, 'क्योंकि किसी भी प्रकार की सांसारिक पकड़ नहीं है, इसलिए ये आनंदित हैं, हे राजन।'
हमेशा की तरह, उस दिन भी राजा उपदेश सुनने के लिए अन्य शिष्यों के साथ बैठे। बुद्ध के उपदेश के बाद भी राजा के पास अनुत्तरित प्रश्न थे। वह सामान्य था! लेकिन जो सवाल वह पूछने को उत्सुक थे, वह हर बार विहार में आने पर उनके मन में कौंधता था। उन्होनें बुद्ध को बहुत बार यह कहते सुना था कि उनके कई शिष्य उस स्थिति में पहुँच गए हैं जहाँ वे थे। हालाँकि, राजा की नज़र में, बुद्ध उन सब से कहीं ऊपर थे। इसके अलावा, राजा को बुद्ध जैसा स्पष्ट वक्ता नहीं दिखाई देता था। यह सुनिश्चित करते हुए कि किसी को उनका सवाल सुनकर आहत न पहुंचे, राजा ने जब वे अकेले थे बुद्ध से प्रश्न किया, 'आपने दावा किया है कि आपके कई शिष्य भी आपकी स्थिति को उपलब्ध हो चुके हैं। लेकिन, मुझे आपके जैसा कोई भी नहीं दिखता? न वो तेज न ऐसी वाक्पटुता।’
प्रश्न सुनकर बुद्ध मुस्कुराए। 'केवल अपनी दृष्टि पर भरोसा न रखें, हे राजन, धोखा हो सकता है।
दूसरों की तुलना में, मैं वाक्पटु, तर्कशील और स्पष्ट वक्ता हो सकता हूँ। लेकिन, मैं जिस उच्च अवस्था का उल्लेख कर रहा हूँ उसका इससे कोई संबंध नहीं है। यह एक ऐसे फूल का खिलना है जो मनुष्य के भीतर घटित होता है जिसका आपके बाहरी स्वभाव पर कोई असर हो यह अनिवार्य नहीं है। तेजस्विता एवं अभिव्यक्ति बाहरी विशेषताएं हैं। इन लक्षणों का आपकी आंतरिक उपलब्धियों से बहुत कम संबंध है, लगभग न के बराबर। कितने बुद्ध पूर्ण रूप से शांत ही रहे। इसी तरह, आपको बहुत से स्पष्टवादी स्वयंभू स्वामी भी मिलेंगे। सिर्फ इसलिए कि उनमें से कुछ उतने स्पष्ट वक्ता नहीं हैं जितना मैं प्रतीत होता हूं, इसका मतलब यह नहीं है कि उन्होंने वह हासिल नहीं किया जो मैंने किया। उन सब ने भी बुद्धत्व हासिल किया है।’
यह आवश्यक नहीं है कि बाहरी विशेषताएं आंतरिक उपलब्धि को इंगित करें। इसलिए जान लें कि वाक्पटुता, अभिव्यंजना, स्पष्ट वक्तव्य ज्ञान के लक्षण हों यह अनिवार्य नहीं है।
सारस गमगीन था। आख़िर इतनी दर्दनाक घटना जो देखी थी उसने। राम को यह बताना भी कठिन हो रहा था। जटायु की तरह, सारस भी सीता का रावण द्वारा अपहरण किये जाने का चश्मदीद गवाह था। अटकते-अटकते, वह किसी तरह घटना का वर्णन करने में सफल रहा। सारस को लगा शायद राम उसकी बात पर संदेह करेंगे। अपने वक्तव्य को साबित करने के लिए सारस ने अपने पंख दिखाए। 'जब उड़ते हुए रथ में सीता का अपहरण कर लिया गया तो वह खूब रोईं। इतना कि मेरे काले पंखों पर गिरे आंसुओं की बूंदों ने उन्हें सफेद कर दिया,' सारस ने समझाया। राम को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं थी। अब तक, वह इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के हर विवरण से अवगत थे। राम को उस भयावह घटना में सारस द्वारा चुकाई गई कीमत पर पछतावा हुआ। राम ने सारस को वरदान दिया कि वह वर्षा ऋतु में काम से मुक्त रहेंगे।
हालाँकि, वरदान से सारस खुश नहीं था। चिंतित दिख रहे सारस को देखकर राम ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, 'तुम वरदान से प्रसन्न नहीं लग रहे हो?' सारस ने सकुचाते हुए कहा, 'हे भगवन, किसी को तो भोजन के लिए शिकार करना होगा। अगर मैं इन महीनों के दौरान काम नहीं करूंगा, तो जिम्मेदारी मेरी पत्नी पर आ जाएगी। वह जो घर लायेगी उसी पर मुझे गुजारा करना पड़ेगा। पत्नी के बचे हुए भोजन पर जीवित रहने के कारण समाज में मेरा उपहास उड़ाया जाएगा।'
राम ने मुस्कुराते हुए कहा, 'इस बुनियादी तथ्य को याद रखें कि हम सभी समान हैं। जैसे सीता मेरे तुल्य है, वैसे ही सभी पत्नियाँ अपने पति के बराबर हैं। रत्ती भर भी कम नहीं। तो, उनके द्वारा लाए गए भोजन पर जीने में शर्म कैसी? यह तो गर्व की बात है।'
सारस ने शब्दों पर मनन किया।आख़िर, औरो की तरह, समाज ने उसकी सोच को भी एक खास तरीके से ढाल रखा था। ऐसी अवधारणा उसने पहले कभी नहीं सुनी थी। राम के सिद्धांत भले ही कट्टरपंथी जान पड़ते हों, लेकिन उन शब्दों के पीछे का अर्थ समझ आ रहा था। सारस ने मुस्कुराकर वरदान स्वीकार किया।
जबकि एक मध्ययुगीन कथाकार इस शाश्वत सत्य को समझ कर स्वीकार कर सकता है कि पुरुष और महिला दोनों समान हैं, आश्चर्य है कि बहुसंख्यक 'आधुनिक' लोगों के मन में पुरातन, पुरुष-प्रधान मानसिकता क्यों कायम है? आइए ईमानदारी से इस निर्विवाद तथ्य को स्वीकार करें और पुराने, बेमेल और अनुचित समीकरणों को बदलें।
रात भयावह रूप से अंधेरी थी और आसमान में गड़गड़ाहट किसी के भी रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा करने के लिए काफी थी। तुलसीराम ने अपने विकल्पों पर विचार किया। उनकी पत्नी रत्नावली पड़ोस के गांव में अपने पिता के घर गई थीं। एक विकल्प ये था कि सुबह का इंतज़ार करें।
हालाँकि, उन्हें इस बात का अंदाज़ा न था कि किसी के मन में उठती इच्छाएं उनसे कौन-कौन से कार्य करने के लिए मजबूर कर सकती हैं। अंधेरी, रहस्यमय और खतरनाक रात में उनके अंदर पैदा हुए उन्माद को कम करने की ताकत न थी। पत्नी से मिलने की बेताबी अत्यन्त तीव्र थी।
पड़ोस के गांव जाने के लिए जिस नदी को पार करना था वह लबालब भरी हुई थी और खतरनाक लहरों के उफान के कारण नावों का चलना दुष्कर था। तूफान थमने के पहले दूसरे छोर पहुंचने का कोई आसार नजर नहीं आ रहा था। लेकिन वही इच्छा जो उन्हें तूफान के बावजूद नदी के किनारे तक ले आई थी, उसी ने उन्हें नदी में कूदने के लिए भी उकसाया।
तैरना आसान न था। नदी में ज्वार अत्यंत तीव्र था और उस पार जाना तकरीबन नामुमकिन। तभी उनकी नज़र ज्वार में बहती एक लाश पर पड़ी। तुलसीराम उसे पकड़कर उस लाश के सहारे तैरने लगे। जल्द ही, उन्होंने खुद को दूसरी तरफ पाया। वह ससुराल की ओर भागे।
अंधेरा होने के बावजूद वह अपने ससुराल पहुंचने में कामयाब रहे। फिर भी, एक समस्या थी। इस अनुचित समय पर दरवाजा खटखटना असंगत होगा। उन्हें ये अंदाज़ा था कि उनकी पत्नी ऊपरी मंजिल स्थित अतिथि कक्ष में सो रही होगी। उन्होंने ऊपर चढ़ने में मदद के लिए रस्सी या पेड़ की शाखा की तलाश की। तभी उन्हें एक सांप दीवार पर रेंगते दिखाई पड़ा, जिसका ऊपरी शरीर छत के कोने पर लिपटा हुआ था। उन्होंने उस सांप की पूँछ पकड़ी और ऊपर चढ़ गए।
रत्नावली उन्हें वहाँ देखकर खुश तो हुई, लेकिन यह जानकर भौचक्की रह गई कि उन्होंने उस तक पहुँचने के लिए क्या-क्या किया। वह तुरंत समझ गई कि यह प्यार नहीं, बल्कि अत्यंत तीव्र काम भाव था जिसने उन्हें ऐसे खतरों से गुज़रने में मजबूर किया। रत्नावली ने तुलसीराम को फटकार लगाई: 'काश आप में इतनी गहन लालसा राम को पाने के लिए होती, तो उच्चतम आध्यात्मिक शिखर तक पहुंच जाते।' जैसा कि हजारों साल पहले वाल्मीकि के साथ हुआ था, एक महत्वहीन प्रतीत होने वाली घटना ने तुलसीराम को तुलसीदास (राम के एक शाश्वत भक्त) में तब्दील कर दिया।
इस कहानी में दो बातें स्पष्ट होती है। एक, कि ज्ञान अप्रत्याशित क्षेत्रों से भी प्रवेश करता है। दो, कि हम इच्छाओं के चक्रव्यूह में जकड़े हुए हैं और यह हम पर निर्भर है कि हम कैसे उच्च शक्तियों की ओर अग्रसर हों—तृष्णा से कृष्णा की ओर … काम से राम की ओर।
उस रात चूहा बहुत सतर्क था। और क्यों न हो? पिछली कुछ रातों से बिल्ली ने अनेक चूहों को पकड़कर खा जो लिया था। चूहा भोजन के टुकड़े को कुतरने ही वाला था कि एक आहट होने पर उसने पीछे मुड़कर देखा। वहां किसी को न पाकर चूहे ने राहत की सांस ली। लेकिन उसे बिल्ली की फुर्ती का अंदाज़ा न था। बिल्ली चुपचाप उसके पीछे आकर खड़ी हो चुकी थी। इससे पहले कि चूहा दोबारा मुड़ता, ऐसी चपलता जो केवल एक बिल्ली ही प्रदर्शित कर सकती है, बिल्ली ने अपना मुंह खोला और उस छोटे से जीव को निगल लिया। आस-पास के बिलों में चूहे अवाक रह गए। उन सब में एक नन्हा चूहा भी था।
बार-बार हो रही घातक घटनाओं ने चूहों की परिषद को एक आपातकालीन बैठक बुलाने पर मजबूर कर दिया। लेकिन बहुत विचार-विमर्श के बाद भी कोई समाधान नहीं निकल पाया। तभी उस नन्हें चूहे ने बोलने की अनुमति मांगी। बड़े चूहोँ ने उसे आश्चर्यपूर्वक देखा। उस नन्हें चूहे के पास इस समस्या का समाधान कैसे होगा जो बड़ों की समझ से भी परे है? इससे पहले कि वे उस नन्हें चूहे को बिना सुने नकार देते, उसने ज़ोर देकर कहा कि उसे उसकी बात रखने की अनुमती दी जाए।अनिच्छा से, वे सहमत हुए।
'बिल्ली के गले में घंटी बांध देते हैं,' नन्हा चूहा थोड़ा सहमकर बोला, क्योंकि पता न था कि उसका सुझाव स्वीकार किया जाएगा या मज़ाक उड़ेगा। 'इससे जब भी बिल्ली हमारे करीब आयेगी, हमें पता चल जाएगा, क्योंकि उसके चलने से घंटी बजने लगेगी।'
एक पल के लिए उस स्थान पर सन्नाटा छा गया। जब उन शब्दों का अर्थ समझ आया तो एक ख़ुशी की लहर दौड़ गई। आख़िरकार उन्हें उस समस्या का समाधान मिल ही गया जो लंबे अर्से से उन्हें विचलित कर रही थी। वे जानते थे कि यह समाधान सिर्फ उनके ही काम नहीं आएगा, अपितु इससे दुनिया भर के चूहों को भी मदद मिलेगी। जब सारे चूहे ख़ुशी से झूम रहे थे तो उस नन्हे चूहे ने उन्हें टोका। छिद्रान्वेषी (डेविल्स एडवोकेट) बनते हुए उसने कहा, 'मेरे इस सुझाव में मुझे एक चेतावनी जोड़ने दीजिए। यह कहना आसान है, लेकिन करना अत्यंत कठिन। अब बड़ा सवाल यह है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन?' इन शब्दों के साथ ही उस स्थान पर फिर से चुप्पी छा गया।
कुछ लोग कहते हैं कि इस कहानी का सबब यह है कि कहना आसान है, उसकी अपेक्षा करना मुश्किल। लेकिन दूसरों का मानना है कि साहस और बुद्धिमत्ता से किसी भी विपरीत परिस्थिति पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन इस सब में, हम बिल्ली को अपने मन में बसे भूत, डर एवं विकारों के रूप में देख, उनका सामना करने का निर्णय कर सकते हैं। ऐसा न करने पर यह तो तय है कि यह विकृतियाँ हमें देर-सवेर निगल जायेंगी। आशा है कि मन के अंदर बसने वाली विकृत-रूपि बिल्लियों के गले में घंटी बांधने के लिए हममें साहस, बुद्धि, चतुराई और क्षमता हो।
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